Thursday, January 13

लोकतंत्र के चौथे खम्बे को बचाओ

जागरूक मीडिया एवं खोजी पत्रकारिता आज हर प्रकार के अन्याय एवं शोषण के विरूद्ध जनसाधारण की आवाज बनकर उभरा है. किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि चहुंओर भ्रष्टाचार से त्रस्त व्यक्ति का यही रक्षाकवच गली गुण्डा प्रकार के मूल्यहीन भटके युवाओं की जमात के हाथ में पैसा वसूली तथा अन्यान्य शोषण का एक नया हथियार भी बन गया है|
छोटे छोटे शहरों कस्बों में बाहुबल से हफ्ता वसूली वाले गुण्डों, गली गली में सक्रिय छुटभैये नेता और पुलिस का पुराना गठजोड़, चाकू की नोक पर परीक्षा पास करके जुगाड़ू डिग्रीधारक गुन्डों की नयी जमात में तब्दील हो चुका है.... हाथ में माइक और कोई छोटा मोटा वीडियो कैमरा.... इनका यही स्वरूप है. पैसा कमाने और धौंस जमाने की नयी व्यवस्था तैयार है... . वरिष्ठ पत्रकार के नाम पर पर्दे के पीछे से अनजान चेहरा किसी फ़िल्मी पटकथा के छिपे चेहरे वाले खलनायक की भांति..... साप्ताहिक खर्चे के लिये पैसों का जुगाड़ करने के लिये अपने चेलों चपाटों को निर्देशित करता है. यह वह व्यक्ति है जो इन्हें संचालित करता है. और यह शिष्य लोग सारा दिन स्कूप के नाम पर सब्जी ठेल वालों तक से “लाइसेंस दिखाओ नहीं तो तुम्हारी न्यूज चैनल पर आ जायेगी..” नासमझ किसी अनजाने भय के वशीभूत हो ले देकर मामला सुलट लेने के लिये तैयार हो जाता है. कभी किसी पार्क में गर्ल फ्रेंड के साथ बैठा कोई युवक घरवलों के भय से समझौता करने को तत्पर हो जाता है. कोई बड़ी पार्टी हाथ आये या फिर कोई तगड़ा स्कूप हाथ लगा तब तो वारे न्यारे...| मीडिया को वही खबर प्रेषित होती है जब कोई इसके लिये तैयार नहीं होता| विषय की गुणवत्ता विचारे बिना सनसनीखेज खबर के नाम पर कई बार महत्वहीन विषय भी किसी न किसी चैनल की खबर बन जाते हैं|
सुबह शाम जहां भी चांस लगा ... लोगों का भयादोहन कर पैसे ऐंठने की नयी व्यवस्था तैयार हो चुकी है.... पहले वाले हथियार के बल पर लोगों को डरा धमका कर लूटते थे तो अपराधिक मामलों में धरे भी जाते थे. परन्तु इन नये कैमरे वाले गुन्डों को तो इसका कोई भय नहीं है. यदि इनसे पूछा जाता है कि भाई अपने चैनल का नाम बताओ तो भाग लेते हैं अथवा किसी न किसी अनजान चैनल का नाम बताकर डरा लेते हैं. इनका परिचय पत्र मांगने अथवा दिखाने की बात पर उलटा जबाब “.... अबे तू क्या मेरी डिग्री देखेगा”। अब कस्बे और जिला स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति तो नियम कानून की समुचित जानकारी नहीं रखता. फिर मीडिया के डर से पुलिस भी इन लोगों से कोई पंगा लेने से डरती है. एक आकलन यह भी है कि स्थानीय एवं राजनीतिज्ञों से मिली भगत के आधार पर ही पैसा वसूली का यह एक नया संगठित ढांचा तैयार हुआ है. मीडिया चैनलों द्वारा स्ट्रिंगर के नाम पर चलने वाली यह व्यवस्था पत्रकारिता के स्थापित मापदण्डों की वास्तविकता से बहुत परे है. व्यक्तिगत रूप से यह लोग कई बार संगठित रूप से हफ्ता वसूली के एजेंट जैसी स्थिति में संलिप्त होकर समाज के सामने एक नयी समस्या खड़ी कर रहे हैं. खोजी पत्रकारिता एवं जागरूक मीडिया के पहरेदारों को इन स्वपोषी अति उत्साही स्वार्थी तत्वों से तत्काल सचेत होने की आवश्यकता है.

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