Saturday, January 15

ताजमहल सिर्फ अमीरों के लिए!

जिस प्रेम के बेमिसाल प्रतीक ताजमहल को देखकर दुनिया भर के प्रेमी युगल कई जन्मो तक साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाते रहे हैं, उसे सिर्फ रईसों के लिए सीमित करने की वकालत की जा रही है।

ब्रिटेन की प्रतिष्ठित फ्यूचर लेबोरेटरी के एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि भारत में ताजमहल, मिस्र के पिरामिड और वेनिस को धनी वर्ग के लिए खेल का विशेष मैदान बना दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें संरक्षित किया जा सके।

उसने चेतावनी दी कि इन विश्व विरासत स्थलों को बचाने के लिए यदि यह कार्रवाई नहीं की गई तो पर्यटन के भारी दबाव के कारण हम अगले 20 वर्षों में इसे खो देंगे।

‘डेली एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक ये विश्व विरासतें केवल धनी लोगों के लिए सीमित की जानी चाहिए और आम पर्यटकों के देखने के लिए अलग से एक प्लेटफार्म बनाया जाना चाहिए।

भविष्यवेत्ता लॉन पियर्सन ने कहा कि भविष्य में हम जहाँ चाहते हैं वहाँ नहीं जा सकेंगे। आने वाले समय में पर्यटन की सुविधाएँ कुछ स्थलों पर होंगी और केवल धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति ही इन पर्यटन स्थलों का टिकट खरीद पाएँगे। (भाषा)

आस्था से जुड़ी मकर संक्रांति


मराठी में यह एक प्यार भरा निवेदन है, जिसका अर्थ है तिल-गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो, तिल-गुड़ फेंकना नहीं और हमसे लड़ना नहीं। यही प्यार भरा संदेश हमारी संस्कृति में भी रचा-बसा है।

भारतीय त्योहार सदैव एकजुटता व परस्पर प्रेम के द्योतक हैं। मकर संक्रांति पर्व भी ऐसे ही स्नेह व श्रद्धा से हर प्रांत व जाति द्वारा मनाए जाने वाला त्योहार है। यह ऊर्जा के स्रोत सूर्य की आराधना के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य की दक्षिणायन से उत्तरायन की ओर गति प्रारंभ होती है, जिससे मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ रातें छोटी व दिन तिल के आकार में बढ़ने लगते हैं। यह सृष्टि के अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है।

विभिन्ना प्रांतों में यह त्योहार थोड़े भिन्न अंदाज व नामों से मनाया जाता है, लेकिन सबका मूल एक-सा ही है। तमिलनाडु में पोंगल, महाराष्ट्र में तिल संक्रांति, पंजाब में लोहड़ी, गुजरात में उत्तरायन, असम में माघ-बिहू और राजस्थान में तो यह पतंग उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पतंग उत्सव में देश से ही नहीं वरन विदेशी भी दूर-दूर से आकर प्रतियोगिता में भाग लेते हैं।

कई स्थानों पर इस दिन लोग मिल-जुलकर गिल्ली-डंडा व पतंगबाजी जैसे आयोजन करते हैं। रंग-बिरंगी पतंगें आसमान की ऊँचाई नापने के साथ, हवा में उड़ती, गोते लगातीं मानो सपनों को छू लेती हैं। जितना आनंद पतंग उड़ाने का उतना ही उसे काटने, पेंच लड़ाने व लूटने में आता है। एक तरह से यह त्योहार ऊँचाइयों को छूने का, गिले-शिकवे दूर कर एक हो जाने का भी है।

आनंद व उल्लास के साथ मकर संक्रांति के दिन जप, तप, दान, स्नान आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। कहते हैं इस समय किया गया दान सौ गुना बढ़कर प्राप्त होता है। महिलाएँ इस दिन सौभाग्य-सूचक वस्तुएँ, तिल-गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं। पवित्र नदी में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर सूर्य को अर्ध्य देना, गाय को चारा खिलाने व खिचड़ी तथा तिल-गुड़ का दान शास्त्रों के अनुसार विशेष फलदायी होता है। 

मकर संक्रांति के दिन तिल से बने व्यंजनों का सेवन सेहत के लिए भी बहुत उपयोगी होता है। तिल का गुड़ के साथ सेवन करने से इसकी पौष्टिकता बढ़ जाती है। साल की शुरुआत में तिल का सेवन पूरे साल निरोगी रखता है। आइए, प्रार्थना करें कि यह मधुर पर्व सबके जीवन में नई उमंग व उम्मीदों का सवेरा लाए। उत्तरायन का सूर्य अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए नई संभावनाओं के साथ।



Thursday, January 13

लोकतंत्र के चौथे खम्बे को बचाओ

जागरूक मीडिया एवं खोजी पत्रकारिता आज हर प्रकार के अन्याय एवं शोषण के विरूद्ध जनसाधारण की आवाज बनकर उभरा है. किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि चहुंओर भ्रष्टाचार से त्रस्त व्यक्ति का यही रक्षाकवच गली गुण्डा प्रकार के मूल्यहीन भटके युवाओं की जमात के हाथ में पैसा वसूली तथा अन्यान्य शोषण का एक नया हथियार भी बन गया है|
छोटे छोटे शहरों कस्बों में बाहुबल से हफ्ता वसूली वाले गुण्डों, गली गली में सक्रिय छुटभैये नेता और पुलिस का पुराना गठजोड़, चाकू की नोक पर परीक्षा पास करके जुगाड़ू डिग्रीधारक गुन्डों की नयी जमात में तब्दील हो चुका है.... हाथ में माइक और कोई छोटा मोटा वीडियो कैमरा.... इनका यही स्वरूप है. पैसा कमाने और धौंस जमाने की नयी व्यवस्था तैयार है... . वरिष्ठ पत्रकार के नाम पर पर्दे के पीछे से अनजान चेहरा किसी फ़िल्मी पटकथा के छिपे चेहरे वाले खलनायक की भांति..... साप्ताहिक खर्चे के लिये पैसों का जुगाड़ करने के लिये अपने चेलों चपाटों को निर्देशित करता है. यह वह व्यक्ति है जो इन्हें संचालित करता है. और यह शिष्य लोग सारा दिन स्कूप के नाम पर सब्जी ठेल वालों तक से “लाइसेंस दिखाओ नहीं तो तुम्हारी न्यूज चैनल पर आ जायेगी..” नासमझ किसी अनजाने भय के वशीभूत हो ले देकर मामला सुलट लेने के लिये तैयार हो जाता है. कभी किसी पार्क में गर्ल फ्रेंड के साथ बैठा कोई युवक घरवलों के भय से समझौता करने को तत्पर हो जाता है. कोई बड़ी पार्टी हाथ आये या फिर कोई तगड़ा स्कूप हाथ लगा तब तो वारे न्यारे...| मीडिया को वही खबर प्रेषित होती है जब कोई इसके लिये तैयार नहीं होता| विषय की गुणवत्ता विचारे बिना सनसनीखेज खबर के नाम पर कई बार महत्वहीन विषय भी किसी न किसी चैनल की खबर बन जाते हैं|
सुबह शाम जहां भी चांस लगा ... लोगों का भयादोहन कर पैसे ऐंठने की नयी व्यवस्था तैयार हो चुकी है.... पहले वाले हथियार के बल पर लोगों को डरा धमका कर लूटते थे तो अपराधिक मामलों में धरे भी जाते थे. परन्तु इन नये कैमरे वाले गुन्डों को तो इसका कोई भय नहीं है. यदि इनसे पूछा जाता है कि भाई अपने चैनल का नाम बताओ तो भाग लेते हैं अथवा किसी न किसी अनजान चैनल का नाम बताकर डरा लेते हैं. इनका परिचय पत्र मांगने अथवा दिखाने की बात पर उलटा जबाब “.... अबे तू क्या मेरी डिग्री देखेगा”। अब कस्बे और जिला स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति तो नियम कानून की समुचित जानकारी नहीं रखता. फिर मीडिया के डर से पुलिस भी इन लोगों से कोई पंगा लेने से डरती है. एक आकलन यह भी है कि स्थानीय एवं राजनीतिज्ञों से मिली भगत के आधार पर ही पैसा वसूली का यह एक नया संगठित ढांचा तैयार हुआ है. मीडिया चैनलों द्वारा स्ट्रिंगर के नाम पर चलने वाली यह व्यवस्था पत्रकारिता के स्थापित मापदण्डों की वास्तविकता से बहुत परे है. व्यक्तिगत रूप से यह लोग कई बार संगठित रूप से हफ्ता वसूली के एजेंट जैसी स्थिति में संलिप्त होकर समाज के सामने एक नयी समस्या खड़ी कर रहे हैं. खोजी पत्रकारिता एवं जागरूक मीडिया के पहरेदारों को इन स्वपोषी अति उत्साही स्वार्थी तत्वों से तत्काल सचेत होने की आवश्यकता है.

Wednesday, January 12




फिल्में भडकाती हैं बच्चों में आक्रोश  


फिल्में लोगों के मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं लेकिन दुख की बात यह है कि फिल्में अपने इस उद्देश्य को पूरा कर पाने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। आजकल फिल्मों में बहुत अधिक हिंसा दिखाई जाती है, इस वजह से दर्शकों की रुचि भी विकृत हो चुकी है। खास तौर से बच्चे फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। उनके अवचेतन मन में हीरो की परदे पर दिखने वाली छवि ही अंकित होती है। वे उन्हीं की तरह बनना चाहते हैं। फिल्में बच्चों के मन में दबे आक्रोश को और अधिक भडकाने का काम करती हैं। बच्चों का यह आक्रोश जब बाहर फूटता है तो कभी-कभी वे अपने दोस्तों के साथ आक्रामक और हिंसक व्यवहार कर बैठते हैं। बच्चों के व्यक्तित्व और चरित्र के निर्माण में फिल्में निश्चित रूप से अपना गहरा प्रभाव डालती हैं। टीनएजर और युवा वर्ग पर भी फिल्मों का नकारात्मक प्रभाव पडता है। टीनएजर फिल्मों में दिखाई जाने वाली हर बात को सही मान लेते हैं और उसी का अनुसरण करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा और अपराध के लिए कहीं कहीं फिल्में जिम्मेदार हैं। फिल्म उद्योग से जुडे लोग अकसर यह तर्क देते हैं कि फिल्में देखकर लोग हिंसा नहीं करते बल्कि समाज में जो होता है हम उसी की सच्चाई बयान करते हैं। लेकिन उनका यह तर्क बिलकुल गलत है। ऐसा नहीं है कि समाज में केवल हिंसा और नकारात्मक बातें ही होती हैं। कई अच्छे कार्य भी समाज में हो रहे हैं, जिनसे सभी को प्रेरणा मिल सकती है। उन अच्छे कार्यो को भी फिल्मों के माध्यम से लोगों के सामने लाया जा सकता है। फिल्म निश्चित रूप से अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और इसका इस्तेमाल सकारात्मक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए।

Sunday, January 9

सीढ़ियों वाली बस्तियां.....

हम सिर्फ झुग्गियों को उजाड़ने की ही ख़बरें पढ़ते-सुनते रहते हैं। कुछ अमीर लोग झुग्गियों पर उनकी शहरनुमा खूबसूरत बीबी के चेहरे पर दाग़ समझते हैं। कुछ को बिल्डर और राजनेताओं के गठजोड़ से पैदा हुई नाजायज़ औलाद नज़र आती हैं झुग्गियां।दिल्ली के बादली गांव के जे जे क्लस्टर गया था। आशियाना और गंदगी का मणिकांचन योग दिखा। सरकार और निगम ने नाली की निकासी का कोई इंतज़ाम नहीं किया है। बिजली आई है। झुग्गियों की आबादी बढ़ी है दो कारण से। एक तो पहले के परिवार बड़े हुए हैं और दूसरे गरीब प्रवासी मज़दूरों का बड़ी संख्या में आना हुआ है। यहां भी किराया सिस्टम आया है। सारी झुग्गियां अब दुछत्ती हो रही हैं। सीढ़ी बनाने के लिए पैसा और जगह दोनों नहीं हैं। इसलिए प्रवासी किरायेदार मज़दूर या परिवार के लोग सीढ़ियों के ज़रिये ऊपर जाकर रहते हैं। सारे मकान एक दूसरे की बोझ से दबे हैं और टिके हैं।
एक तस्वीर में आप देखेंगे कि कैसे रास्ते के बीच में ऊपर एक कमरा बनाया गया है। हर घर के बाहर एक बांस की सीढ़ी आपको दिखेगी। कुछ घरों में रंगाई और टाइल्स भी नज़र आए। वो इसलिए कि इमारती मज़दूर बचे हुए सामानों से अपने घरों को सुन्दर बनाने की कोशिश कर लेते हैं। थ। ज़मीन पर जगह नहीं है इसलिए छत का कई प्रकार से इस्तमाल हो रहा है। यहां की औरतें जिन मेमसाहबों के यहां काम करती हैं उनके बच्चे के छोड़े टूटे खिलौने,कुर्सियां और चादर वगैरह से लगता है कि यहां का स्तर बढ़ा होगा। कुछ मेमसाहबों की पुरानी साड़ियों में बनी-ठनी नज़र आती हैं। सारी औरतें कामगार हैं,अथाह परिश्रम करती हैं और उस अनुपात में पौष्टिक आहार नहीं मिलता इसलिए इन बस्तियोंमें ज्यादातर औरतें छरहरी दिखेंगी। लेकिन सब किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं।...

DEEPIKA