Wednesday, September 18

विपरीत दिशायें एक रास्ता

श्याम, रात की चादर स्लो मोशन में ओढ़ रही थी. सड़क की दोनों तरफ पेड़ो की शाखाएं हवा के झोंकों से झूला झूल रही थी, एकाएक हवा की तरंगें जीवंत हो उठी और पेड़ों के पीले -हरे और कुछ भूरे रंग के सूखे पत्ते तेज़ी से सड़क की दोनों तरफ बिछ गये. मैंने पेड़ का सहारा लेते हुए तेज़ हवा के थमने का इंतज़ार किया. पर हवा तेज़ आधी में तब्दील हो गयी और अब मुझे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था, चारों तरफ सड़क के किनारों की मिट्टी घुलने लगी. तभी मेरे पैर पर कुछ गिरा, मैं डर गयी थी.  और जब आखों पर जमी मिट्टी की परत हटाई तो एक मासूम बच्चा पाया. जो पेड़ पर बने चिड़ियाँ के घोंसले से गिर गया था. चिड़ियाँ का बच्चा बहुत छोटा था, अभी उसके पंख भी पूरी तरह से नहीं निकले थे. पर वो पेड़ पर बैठी अपनी माँ  के साए को पाने के लिए जी-जान से चूं-चूं, कर रहा था. वही माँ भी अपने चिड़ें को पाने के लिए चिल्ला रही थी. मैंने एक पीला पत्ता उठाया और उस पत्ते में चींडू ( चिड़ियाँ का बच्चा ) को सहलाते हुए रखा.  मैंने कोशिश की थी मगर हाथ उस घोंसले तक नही पहुँच पा रहा था. इसी बीच हवा-आंधी और एक आता तूफ़ान थम गया. तुम मेरे पास आये और मेरे गले की चेन देते हुए बोले - "ये शायद आप ही की है ". मैंने देखा मेरे गले में लटकी हुई चेन मेरे पास नहीं थी . मैंने तुमसे कहा - "जी ये मेरी ही है". तुमने चेन मेरे हाथ में थमाई और जाने लगे. एक बार भी तुम्हे ये जिज्ञासा नहीं हुई कि मैं पेड़ के पास खड़ी उछल -उछल कर क्या करने की कोशिश कर रही हूँ. कुछ सेकंड में ही तुम 10 कदम दूर पहुँच गये थे. मैंने तुम्हे आवाज़ दी - " सुनो, वापस आओ ज़रा", तुम ना चाहते हुए भी वापस आये और बोले - " अगर कुछ सुनाना है तो मुझे कुछ नहीं सुनना है". मैंने भी गुस्से में कहा- " मुझे कौनसा कुछ सुनाना है, मैं अब भी नाराज़ हूँ तुमसे...तुम लगभग चिल्लाते हुए बोले- " तो वापस क्यों बुलाया मुझे". मैंने बेरुखी से कहा- " हमारे झगड़े अलग है, बस चीड़ू को ऊपर घोंसले में रख दो" . मुझे पता है तुम बाहर से कितने ही कठोर क्यूँ ना हो पर चीड़ू के लिए तुम कभी मना नहीं करोगें. और फिर जाने - अनजाने में ही सही, कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रास्ते पर तुम मेरे लिए पहुँच ही जाते हो. तुमने मेरे हाथ से चिड़ियाँ का बच्चा लिया और बड़ी आसानी से चीड़ू को घोंसले में रख दिया, कुछ पल के लिए चिड़ियाँ और उसके बच्चे की चीं -चूं, चीं -चूं  सुन कर हम दोनों मन ही मन खुश होने लगे. फिर से बिना कुछ कहे तुम मुड़े और जाने लगे. एक बार पूछ तो लिया होता कि मैं कहाँ जा रही हूँ खैर मैं भी तुमसे बिना कुछ बोले जाने लगी. मैं और तुम सड़क की विपरीत दिशाओं में चलने लगे और चलते - चलते बहुत दूर पहुँच गये. सड़क खत्म होने पर मैंने तुम्हे मुड़ कर देखा, तुम कहीं नहीं थे. मैंने वापस अपना रास्ता पकड़ा, अब एक सड़क नहीं थी बल्कि चार अलग-अलग राहे थी. उस चौहराहे पर हमेशा रेड लाइट ही मिलती थी. मैंने जल्दी जल्दी ग्रीन लाइट होने से पहले सड़क पार की और तभी एक उल्लू का पट्ठा बाइक वाला लगभग मुझे जान से ख़त्म करते हुए निकला, मगर मैं बच गयी क्योंकि सही वक़्त पर तुमने मेरा हाथ खींच कर मुझे बचा लिया था. तुमने फिर से गुस्से में कहा - "आँखें खोल कर नहीं चल सकती क्या". मुझे हँसी आई और मैं तुमसे सिर्फ इतना कहना चाहती थी - तू समझता क्यूँ नहीं, चार अलग- अलग रास्तों में से हम फिर से एक ही रास्ते पर क्यूँ मिले जबकि हमने विपरीत दिशाओं से चलना शुरू किया था. खैर तू नहीं समझेगा, फिर कभी समझाउंगी.
अच्छा सुन जाते- जाते गुलज़ार साहेब की लिखी कुछ पंक्तियाँ तो सुनता जा-    
              आने वाला पल  जाने वाला है
             हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो
              पल जो ये जाने वाला है....

           एक बार वक़्त से लम्हा गिरा कहीं
          वहाँ दास्तान मिली लम्हा कहीं नहीं
     थोड़ा सा हसाके थोड़ा सा रुलाके पल ये भी जानेवाला
है हो हो.....

Tuesday, September 17

ऐ जिंदगी क्या तू नाराज़ अब भी है ...


आम हो कर भी आम नहीं
ख़ासम ख़ास थी जिंदगी

हवाओं में इब्तदा से सी कशिश
और रातों में शहद-सी मिठास थी जिंदगी

चांदनी में इठलाते सफ़ेद टुकड़े
और हर-पल  चमकती-आस थी जिंदगी

दीयों में तेल कम था मगर
मीलों दूर रोशनी भिखेरती थी जिंदगी

सपनों की गति कम थी  मगर 
हिरन-सी दौड़ती थी जिंदगी 

कुछ आधा तू, कुछ आधी मैं,
फिर भी पूरी सी थी जिंदगी

फिसलते हुए एहसासों की गर्दिश में
गीले आसमान की सीलन अब भी है

जिंदगी क्या तू नाराज़ अब भी है ...