वे दौर अब नहीं रहा जब टीवी पर विज्ञापन आते ही आपकी नजर रिमोट पर दौड़ती थी और आप फट से चैनल बदल देते थे। मौजूदा दौर में एकता कपूर के के सीरियल भले ही उबाउ हो चले हों पर विज्ञापन समय दर समय रोचक होते जा रहें हैं। अब किसी खास विज्ञापन की वजह से आप चैनल बदलते बदलते उंगलियों को रोक दें ऐसा सम्भव है। विज्ञापन अब एक बड़ा उद्योग बन चला है और इस उद्योग में रचनात्मकता की उड़ान अपने उफान पर है। विज्ञापन विभिन्न संस्थानों में एक विषय के रुप में पढ़ाया जाने लगा है और इस क्षेत्र में ऐसे ऐसे दिग्गज निकलकर आ रहे हैं जिन्होंने नीरस ढ़र्रे पर चले आ रहे विज्ञापन उद्योग को नई शक्ल दे दी है।
सितारों की चमक
विज्ञापन में फ़िल्मी सितारों के शामिल होने से उत्पाद की बिक्री में कोई फर्क पड़ता है या नहीं यह हमेशा चर्चा का विषय रहा है। लेकिन उत्पादनकर्ता कम्पनियों में स्टारकास्ट की छवि को भुनाने की होड़ हमेशा ही रही है यही कारण है कि कभी आमिर खान साब जी बनकर ठंडे का मतलब दर्शकों को बताते हैं तो कभी सलमान खान शूटिंग शर्टिंग के विज्ञापन के जरिये क्या हिट क्या फिट समझाते हैं। कभी अमिताभ बच्चन दो बूंद जिन्दगी के मायने चुटकी बजाते ही समझा देते हैं तो कभी सनी देओल अपने दो किलो के हाथ का हवाला देते हुए अन्डरगारमेंट को हिट करने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। यही नहीं ओम पुरी, जावेद अख्तर, इरफान खान और कैलाश खैर जैसी फिल्मों से जुड़ी हुई हस्तियों की दमदार आवाज भी इन दिनों विज्ञापनों का जायका बढ़ा रही है। हांलाकि उत्पादनकर्ता कम्पनियां यह समझाती हैं कि बात जब उत्पाद की विश्वसनीयता पर आती है तो लोग सितारों के भरोसे ही खरीददारी नहीं कर लेते लेकिन पूरी रणनीति के साथ चलने वाली ये कम्पनियां अगर अपने उत्पाद के प्रोमोशन के लिए फिल्मी सितारों पर इतना पैसा बहा रही हैं तो जाहिर है इसकी कोई ठोस वजह जरुर होगी।
कमाल पंच लाइन का
विज्ञापनों में पंचलाइन की भूमिका शुरु से ही अहम रही है। साड़ी पहने हुए एक आदर्श भारतीय नारी जब गृहणियों को फेना ही लेना की सलाह देती थी तो उसका एक अलग ही असर होता था। यह असर कुछ वैसा ही था जैसे हमारे बीच का ही कोई खुशमिजाज हितेषी हमें नेक सलाह दे रहा हो। धीरे धीरे पंचलाइन समय के साथ टेंडी होने लगी। ठंडे का मतलब कोकाकोला बताया जाने लगा। इच्छा भले हो या ना हो पर दिमाग में दिल मांगे मोर छाने लगा। इतने से ही काम ना चला तो कोल्डड्रिंक को मर्दानगी और सेन्सेशन से जोड़कर टेस्ट द थन्डर का रुप दे दिया गया। लेकिन पंचलाइन को अभी और फक्कड़ होना था। आपकी और हमारी रोजमर्रा की भाषा के और करीब आना था। ऐसे में दिमाग की बत्ती जला देने का सिलसिला शुरू हुआ। विज्ञापनों में कभी जोर का झटका धीरे से लगने लगा तो कभी यारा दा टशन, तो कभी दो रूपए के दो लड्डू भाषा का हिस्सा बन गया। चन्द शब्दों की इस बाजीगरी से दर्शक एक बार सोचने को मजबूर जरुर हुए कि क्या इसी तरह का कोई आइडिया उनकी जिन्दगी को बदल सकता है।