Friday, January 7

दिल्ली में दिख गई ढेंकी.....

दिल्ली में दिख गई ढेंकी कभी-कभी घूमते-घूमते ग़ज़ब का अनुभव हो जाता है। बवाना की पुनर्वास कालोनी में ढेंकी केदर्शन हो गए। दिल्ली में ढेंकी के दर्शन हो जायेंगे कभी सोचा नहीं था। कुछ महीने पहले चंद्रभान प्रसाद कह रहे थे कि गांवों से जांता और ढेंकी ग़ायब हो चुके हैं। जांता पर गेहूं और चना पीसा जाता था। बल्कि पीसने की जगह दरने का इस्तमाल होता था। ढेंकी से धान की कूटाई होती थी। धीरे-धीरे। वक्त लंबा होता था तो औरतों ने ढेंकी कुटने के वक्त का संगीत भी रच डाला था। मेरी चचेरी बहन,फुआ और बड़ी मां को खूब गाते देखा है। हम भी जब उधर से गुज़रे तो दस पांच बार ढेंकी चला लिया करते थे। ढेंकी से निकलती चरचराहट की आवाज़ गांव घरों में दोपहर के वक्त के सन्नाटे को अपने तरीके से चीरा करती थी। हालांकि ढेंकी और जाता पूरी तरह से ग़ायब नहीं हुए हैं मगर गांवों में कम दिखने लगे हैं। मशीन की कूटाई-पिसाई ने न जाने कितने सैंकड़ों साल पुरानी इसतकनीक को ग़ायब कर दिया। ग़नीमत है समाप्त नहीं हो पाई ढेंकी। हम सोचते रहे कि दिल्ली जैसे महानगर में ढेंकीजाता का बात कौन करेगा। मगर महानगर में ढेंकी को देखकर ऐसे लगा जैसे बवाना में डायनासोर देख लिया या फिर अजगर निकल कर किसी के बिस्तरे पर आ गया हो। हैरानी। तीन चार लड़कियां उसी मस्त अंदाज़ मेंझूमते हुए चावल कूट रही थीं। अब यही से विश्लेषण सामाजिक टाइप होने लगता है। कई संस्कृतियों वाली पुनर्वास कालोनी में एक पुरानी तकनीक का जगह बनाना। कूटने वाली महिलाएं बांग्ला बोल रही थीं।कूट रही थीं चावल। धान नहीं। महिला ने बताया कि पचास किलो चावल पीसने में तीन घंटे लग जाते हैं। पीसे हुए चावल से वो बस्ती में इडली डोसा बेचती है। हद हो गई। कॉकटेल की। बंगाली औरतें,उत्तर भारतीय ढेंकी और कूटाई-पिसाई दक्षिण भारतीय व्यंजन के लिए। बंगाल में भी ढेंकी का इस्तमाल होता रहा है। बांग्ला में इसका कुछ नाम था जो मैं लिखते वक्त भूल गया। क्या पता यह टेक्नॉलजी पूरे भारत में ही हो। बल्कि होगी ही। बहुत आनंद आया इस ढेंकी को देखकर।
DEEPIKA

मैं और मेरी हिंदी

हिंदी अब भारत मात्र की भाषा नहीं है... नेताओं की बेईमानी के बाद भी प्रभु की कृपा से हिंदी विश्व भाषा है. हिंदी के महत्त्व को न स्वीकारना ऐसा ही है जैसे कोई आँख बंद कर सूर्य के महत्त्व को न माने. अनेक तमिलभाषी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं. तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र एम्.ए. और अनेक पीएच. डी. कर रहे हैं. हिन्दी भाषी प्रदेश में आकर लाखों तमिलभाषी हिन्दी बोलते, पढ़ते-लिखते हैं.
अन्य दक्षिणी प्रान्तों में भी ऐसी ही स्थिति है.
मुझे यह बताएँ लाखों हिन्दी भाषी दक्षिणी प्रांतों में नौकरी और व्यवसाय कर रहे हैं, बरसों से रह रहे हैं. उनमें से कितने किसी दक्षिणी भाषा का उपयोग करते हैं. दुःख है कि १% भी नहीं. त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हर भारतीय को रह्स्त्र भाषा हिंदी, संपर्क भाषा अंग्रेजी तथा एक अन्य भाषा सीखनी थी. अगर हम हिंदीभाषियों ने दक्षिण की एक भाषा सीखी होती तो न केवल हमारा ज्ञान, आजीविका अवसर, लेखन क्षेत्र बढ़ता अपितु राष्ट्रीय एकता बढ़ती. भाषिक ज्ञान के नाम पर हम शून्यवत हैं. दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाती, जबकि हिन्दी मेरी माँ है तो वे मौसियाँ तो हैं.
यदि अपनी समस्त शिक्षा हिन्दी माध्यम से होने के बाद भी मैं शुद्ध हिन्दी नहीं लिख-बोल पाती , अगर मैं हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को पूरी तरह नहीं जानती  तो दोष तो मेरा ही है. मेरी अंग्रेजी में महारत भी  नहीं है. मुझे बुन्देली भी नहीं आती, पड़ोसी राज्यों की छतीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, मागधी, बृज, भोजपुरी से भी मैं अनजान हूँ... मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुई उसके बावजूद मैं विभिन्न भाषाओ से दूर रही गलती केवल मेरी ही है.मेरी कक्षा में ऐसे विधार्थी भी है जो उर्दू, भोजपुरी, हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान रखते है. परन्तु मैं ही इन भाषाओ से अपरिचित हूँ मुझे इसका अफ़सोस है. देर से ही सही मुझे कम से कम इसका एहसास तो हुआ. आप भी हिंदी भाषा के साथ अन्य दक्षिणी भाषाओ को भी अपनाये ताकि प्रतिस्पर्धा कि इस दोड़ में आपको पछताना न पढ़े.
समय की चुनौती सामने है. हमने खुद को नहीं बदला तो भविष्य में हमारी भावी पीढियां हिंदी सीखने विदेश जायेंगी. आज विश्व का हर देश अपनी उच्च शिक्षा में हिन्दी की कक्षाएं, पाठ्यक्रम और शोध कार्य का बढ़ता जा रहा है और हम अपने आसपास रहने वालों को और बच्चों को हिन्दी से दूरकर अंग्रेजी में पढने के लिए  कहते  हैं. दोषी कौन? दोष किसका और कितना?,
कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.

Wednesday, January 5

सूरज

वह पढ़ने में बहुत अच्छा है. वह सोचता भी बहुत है. उसकी दो बहन है और वह सबसे बड़ा. बड़ा होने के नाते वह अपने परिवार के लिए बहुत कुछ करना चाहता है उसका नाम सूरज है. सूरज के पिता मज़दूर है, एक दिन काम करते वक़्त तीसरी मंजिल से एक कच्ची दीवार उनके ऊपर गिर गयी,दुर्भाग्यवश उनका दया हाथ टूट गया था. करीब दो महीने तक काम पर न जा पाने के कारण, सूरज के परिवार को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा. सूरज को वे दिन अब तक अच्छे से याद है जब माँ दुसरो के घरों के जूठे बर्तन धो कर घर चलाती थी.सूरज अपने घर की हालत देख कर कभी कुछ नही मांगता था, हालाँकि अपने दोस्तों की तरह अच्छे कपड़े पहनने का उसका बड़ा मन करता था. एक दिन वह घर के बाहर अकेला बैठा कुछ सोच रहा था, एकाएक उसकी नजर आँगन में एक छोटे से गड्ढे पर पड़ती है. गड्ढे में चींटियों का एक झुंड है. चींटियाँ लाइन से जा रही है वह चींटियों की लाइन को देखता हुआ बहुत दूर तक पहुँच जाता है जहाँ एक कीड़ा मरा पड़ा है. सभी चींटियाँ उस कीड़े का एक-एक अंश अपने मुंह में रख कर जा रही है. यह सब देख कर वह सोचता है की मैं भी इन चींटियों की तरह खूब मेहनत करूँगा और एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनूँगा... आज रात वह बिलकुल नहीं सोया,क्योंकि कल उसके स्कूल में पेपर थे.वह दंसवी में पढता है उसके सारे पेपर बहुत अच्छे गये थे ...वह बहुत खुश है और अपने पेपर की मार्कशीट लेने जा रहा है.मार्कशीट हाथ में लेते ही उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी ,वह बहुत रोया, उसे समझ नही आ रहा है कि वह क्या करे वह भागता हुआ गया और ट्रेन कि पटरी पर जा कर खड़ा हो गया. उधर से ट्रेन रफ़्तार में उसकी तरफ बढ़ रही थी....शाम को उसके घर पर एक दूसरी मार्कशीट आई,  जिसमे सूरज प्रथम आया था. मार्कशीट देखकर माँ बहुत खुश हुई . वह अभी तक सूरज की राह देख रही है पर वह घर वापस कभी नहीं आया... वह फैल वाली मार्कशीट किसी दुसरे सूरज की थी जो सूरज को मिली थी .........


''यदि हम जीवन में 'सूरज' के जाने पर रो पड़ेंगे तो आंसू भरी आँखें सितारें कैसे देख सकेंगी"

Tuesday, January 4

हमें रोटी देने वाले खुद भूखे मर रहे हैं

वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा देश को गुमराह करते हुए कहते हैं कि विश्व व्यापार संगठन के नियमो के तहत वह भारतीय किसानो को कोई नुकसान नही होने देंगे। लेकिन फिर भी किसानो की आत्महत्या की संख्या दिन प्रतिदिन क्यों बढती जा रही है इसका एक मुख्य कारण है बढता हुआ कर। भारत में किसान चिलचिलाती धूप में जानवरों की तरह काम करते हैं, फिर भी एक माह में प्रति किसान परिवार 2400  रूपये से अधिक नहीं कमा पाता। एक साल में यह राशि मात्र 28 हजार रूपये बैठती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के किसान गरीबी रेखा से काफी नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। अब अपनी सांस रोक लें। भारत में किसान मर रहे है, जबकि यूरोप में किसानो को 4000 रूपये प्रति हेक्टेयर प्रत्यक्ष अनुदान मिल रहा है। यह राशि भारत के किसानो की औसत आमदनी से लगभग दोगुनी है।

गैरों से कोई शिकवा नहीं

 भीड़ में भी तन्हा हूँ मैं,
गैरों से कोई शिकवा नहीं 
अपनों से कहने को कुछ बचा
फिर छोड़ जाये कोई साथ हमारा
इसलिए अकेले बिताना है  हमको यह सफ़र हमारा
एक थी आस तुम्हारी, सोचा साथ बिताएंगे यह जिंदगानी हमारी,
पर पाने को कुछ रहा नहीं,
खोने को कुछ बचा नहीं,
हमें कोई समझ  न पाया
इस दिल में क्या है कोई जान  न पाया
भुला दिया सब कुछ एक ही पल में,
कौन है हम कह दिया एक ही लब में.
गैरों से कोई शिकवा नहीं 
अपनों से कहने को कुछ बचा नहीं
जब मन चाहा अपनाया हमें
जब मन चाहा ठुकराया हमें
हमारा मन क्या मन नही
जाओ जी लेंगे हम अकेले
फिर न कहना छोड़ दिया साथ हमारा
हम महसूस करते है तुम्हे,
इसलिए सुना दिया यह दर्द- ए-हाल हमारा
दिल से निकली ये आवाज़ है,
न कोई दोस्त,  न कोई सच्चा साथी है हमारा