Tuesday, September 17

ऐ जिंदगी क्या तू नाराज़ अब भी है ...


आम हो कर भी आम नहीं
ख़ासम ख़ास थी जिंदगी

हवाओं में इब्तदा से सी कशिश
और रातों में शहद-सी मिठास थी जिंदगी

चांदनी में इठलाते सफ़ेद टुकड़े
और हर-पल  चमकती-आस थी जिंदगी

दीयों में तेल कम था मगर
मीलों दूर रोशनी भिखेरती थी जिंदगी

सपनों की गति कम थी  मगर 
हिरन-सी दौड़ती थी जिंदगी 

कुछ आधा तू, कुछ आधी मैं,
फिर भी पूरी सी थी जिंदगी

फिसलते हुए एहसासों की गर्दिश में
गीले आसमान की सीलन अब भी है

जिंदगी क्या तू नाराज़ अब भी है ...

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