डायरी के पन्नों से निकल के आज शब्दों ने बाहर झाँका ...
कहा मुझसे, है तेरी स्याही भ्रम और कलम है धोका ..
क्यूँ वक़्त बेवक्त लिख के इन सोये पन्नों को जगाती है....
नींद तुझे आती नहीं क्यूँ अपनी ख्वाहिशें इन पन्नों पर फरमाती है.? ?
लफ्जों से जो तूने कहा नहीं..क्यूँ बेजुबान कलम से कहलवाती है..
कह भी दे..है आरजू जो तेरी ...उससे ...कहीं वक़्त चिढ़ जाएँ न तुझसे
कैसे कहूं मैं उससे
रातों रातों जग के मैंने देखें उसके हसीन सपने
खो कर अपने चैन को मैंने पाये उसके बीते लम्हे
आँखों में न नींद न जगने की हसरत है ..
बस उसकी चाहत को तरसते ये नयन है
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