Sunday, May 13

जगते देखा है

पाप-पुण्य की बनी इस दुनिया में ..
मैंने इन्सान को मिटते देखा है..

 सर्दी की रातों में, मैंने बेबसी की चादर ओढ़े गरीब को ठिठुरते देखा है
 गर्मी की झुलसती धूप में,  मैंने औलाद की भूख मिटाने की चाह लिए,
                                                                                  
  एक माँ को जलते देखा है












 क्या खूब बनायी दुनिया तूने,
पैसों की खातिर इस जहाँ में, मैंने प्यार के रिश्तों को बदलते देखा है
    वक़्त-वक़्त की बात है बस...
 आंधी- तूफ़ान में फंसी  रातों  के सोते ख्वाबों को भी मैंने जगते देखा है... 

1 comment:

  1. दीपिका जी! लेखन और चिंतन की निरंतरता बनाये रखें।

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