Friday, November 11
पिता और गुरु
Saturday, November 5
छोटी सी जिंदगी
सोच क्या हैं ? ? ?
Sunday, March 13
ऐ प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम
Wednesday, March 2
अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे सत्यजीत रे
दो मई 1921 को कलकत्ता में जन्मे सत्यजीत रे ने शुरुआत में विज्ञापन एजेंसी में बतौर जूनियर विज्युलाइजर काम शुरु किया था। इसी दौरान उन्होंने कुछ बेहतरीन किताबों के आवरण बनाए जिनमें से मुख्य थी जिम कार्बेट की मैन इटर्स आफ कुमायूं और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी आफ इंडिया। तब कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा। सत्यजीत रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज का सम्मान भी शामिल है। पाथेर पांचाली को बनाने के लिए सत्यजीत रे को काफी संघर्ष करना पड़ा यहां तक कि अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे पर इस फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिये।
सत्यजीत दा को परिभाषित करने के लिए महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरासोवा का यह कथन काफी है यदि आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी हैं तो इसका मतलब आप दुनिया में बिना सूरज या चांद देखे रह रहे हैं। अपने जमाने की प्रसिद्ध हीरोइन वहीदा रहमान कहती हैं कि उनका नजरिया बिल्कुल साफ था। वे अन्य फिल्मकारों से बिलकुल जुदा थे। उन्हें पता था कि किस कलाकार से किस तरह का काम चाहिए। निर्देशक जहनू बरुआ कहते हैं- रे भारत में पहले फिल्म निर्माता थे जिन्होंने विश्व सिनेमा की अवधारणा का अनुसरण किया। भारतीय सिनेमा में आधुनिकतावाद लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी फिल्में हमेशा यथार्थ पर केन्द्रित रहीं और उनके चरित्रों को हमेशा आम आदमी के साथ जोड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि पाथेर पांचाली, अपूर संसार तथा अपराजितो में सत्यजीत रे ने जिस सादगी से ग्रामीण जनजीवन का चित्रण किया है वह अद्भुत है। चारुलता में उन्होंने मात्र सात मिनट के संवाद में चारु के एकाकीपन की गहराई को छू लिया है। उन्होंने अपनी हर फिल्म इसी संवेदनशीलता के साथ गढ़ी। शर्मिला टेगौर के मुताबिक सत्यजीत रे बड़ी आसानी से मुश्किल से मुश्किल काम करवा लेते थे। अर्मत्य सेन के मुताबिक रे विचारों का आनंद लेना और उनसे सीखना जानते थे। यही उनकी विशेषता थी। चार्ली चैपलिन के बाद रे फिल्मी दुनिया के दूसरे व्यक्ति थे जिसे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा था। उन्हें भारत रत्न दादा साहेब फालके, मानद आस्कर एवं अन्य कई पुरस्कारों से देश विदेश में सम्मानित किया गया था।
सत्यजीत दा की अनोखी कल्पनाशीलता का पता फेलूदा तोपसे और प्रो.शंकू के कारनामों से सजी उनकी कहानियों से चलता है। ऐसा लगता है जैसे वे भविष्य में झांकने की शक्ति रखते थे। उनके द्वारा ईजाद किये हुए फेलूदा और प्रो.शंकू के किरदार आज भी लोगों को गुदगुदाते हैं और उनके कारनामों में आज भी उतनी ही ताजगी महसूस होती है जितनी तब जब ये लिखे गए थे।
फेलूदा की लोकप्रियता तो इतनी अधिक है कि उसे देसी शरलक होम्स कहा जाता है। भारत के अन्य किसी भी उपन्यासकार या लेखक के किरदार को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली है जितनी कि रे के फेलूदा और प्रो.शंकू को मिली। रे की प्रतिभा से प्रभावित पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने उनसे रवीन्द्रनाथ टेगौर पर वृत्तचित्र बनाने का आग्रह किया था। कुछ आलोचकों को कहना था कि रे की फिल्में बहुत ही धीमी गति की होती हैं पर उनके प्रशंसक इन आलोचनाओं का कड़ा जवाब यह कहकर देते थे कि उनकी फिल्में धीमी बहती नदी के समान हैं जो सुकून देती हैं।
रे की लोकप्रियता का इसी से पता चलता है कि वर्ष 2007 में बीबीसी ने उनके किरदार फेलूदा की दो कहानियों को अपने रेडियो कार्यक्रम में शामिल करने की घोषणा की थी।
सत्यजीत रे 70 वर्ष की उम्र में 23 अप्रैल 1992 को इस दुनिया से विदा हुए। उस समय हजारों प्रशंसकों ने कलकत्ता स्थित उनके निवास के बाहर एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।
महाशिवरात्रि
मान्यता के अनुसार, आज ही के दिन देवो के देव भोले शंकर का पार्वती के साथ विवाह हुआ था। इस दिन के पौराणिक काल से ही महाशिवरात्रि के रूप में मनाने की पंरपरा है। मान्यता है कि आज के दिन सच्चा मन से भोले भंडारी की पूजा अर्चना करने से सभी मन्नत पूरी होती है। धर्मनगरी हरिद्वार में महाशिवरात्रि की धूम है।
शिव रात्रि को लेकर सबसे ज्यादा चहल-पहल शिव की ससुराल कनखल में है। कनखल में शिव मंदिरों के दुल्हन की तरह सजाया गया है।
शिवजी को सभी देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इनकी आराधना सभी प्रकार की फलों को प्रदान करती है। महादेव को कई नामों से जाना जाता है जैसे भोलेनाथ, नीलकंठ, उमापति, भोलेनाथ, दीनानाथ, शंकर आदि। शिवरात्रि पर इनकी पूजा-अर्चना से सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है और सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी होती है। यदि आप भी शिवरात्रि पर धर्म लाभ और पुण्य लाभ अर्जित करना चाहते हैं और किसी बड़े मंदिर या तीर्थ जाने का समय नहीं है तो अपने नजदीक किसी भी शिव मंदिर में पूजा करें। निश्चित ही इस पूजा से भी भगवान महादेव की कृपा अवश्य प्राप्त होगी।
शिवजी को भोलेनाथ कहा जाता है क्योंकि वे बहुत ही भोले हैं और अपने भक्तों के भावों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति धन की कमी या समय की कमी के कारण महादेव के किसी तीर्थ पर जाने में अक्षम हैं तो वे सुविधानुसार किसी भी मंदिर में शिवलिंग की पूजा कर सकते हैं।
ऐसा माना जाता है कि कण-कण में शिवजी विराजमान हैं। इसी वजह से शिवजी सभी मंदिरों में विराजमान हैं। इस शिवरात्रि यदि आपके पास पर्याप्त समय और धन है तो आप महादेव के 12 ज्योतिर्लिंग में से किसी भी ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर सकते हैं। ज्योतिर्लिंग की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है, शास्त्रों के अनुसार इन 12 स्थानों पर भोलेनाथ साक्षात विद्यमान हैं और भक्तों की मनोकामनाएं तुरंत ही पूरी करते हैं। साथ ही शिवरात्रि पर माता पार्वती के पूजन का भी विशेष महत्व है। माता पार्वती की पूजा के लिए देशभर में 51 शक्तिपीठ बताए गए हैं। इन 51 शक्तिपीठ की पूजा का विशेष महत्व है। शिवरात्रि पर किसी भी शक्तिपीठ के भी दर्शन और पूजा करनी चाहिए।
Saturday, January 22
बदलते विज्ञापन....
वे दौर अब नहीं रहा जब टीवी पर विज्ञापन आते ही आपकी नजर रिमोट पर दौड़ती थी और आप फट से चैनल बदल देते थे। मौजूदा दौर में एकता कपूर के के सीरियल भले ही उबाउ हो चले हों पर विज्ञापन समय दर समय रोचक होते जा रहें हैं। अब किसी खास विज्ञापन की वजह से आप चैनल बदलते बदलते उंगलियों को रोक दें ऐसा सम्भव है। विज्ञापन अब एक बड़ा उद्योग बन चला है और इस उद्योग में रचनात्मकता की उड़ान अपने उफान पर है। विज्ञापन विभिन्न संस्थानों में एक विषय के रुप में पढ़ाया जाने लगा है और इस क्षेत्र में ऐसे ऐसे दिग्गज निकलकर आ रहे हैं जिन्होंने नीरस ढ़र्रे पर चले आ रहे विज्ञापन उद्योग को नई शक्ल दे दी है।
सितारों की चमक
विज्ञापन में फ़िल्मी सितारों के शामिल होने से उत्पाद की बिक्री में कोई फर्क पड़ता है या नहीं यह हमेशा चर्चा का विषय रहा है। लेकिन उत्पादनकर्ता कम्पनियों में स्टारकास्ट की छवि को भुनाने की होड़ हमेशा ही रही है यही कारण है कि कभी आमिर खान साब जी बनकर ठंडे का मतलब दर्शकों को बताते हैं तो कभी सलमान खान शूटिंग शर्टिंग के विज्ञापन के जरिये क्या हिट क्या फिट समझाते हैं। कभी अमिताभ बच्चन दो बूंद जिन्दगी के मायने चुटकी बजाते ही समझा देते हैं तो कभी सनी देओल अपने दो किलो के हाथ का हवाला देते हुए अन्डरगारमेंट को हिट करने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। यही नहीं ओम पुरी, जावेद अख्तर, इरफान खान और कैलाश खैर जैसी फिल्मों से जुड़ी हुई हस्तियों की दमदार आवाज भी इन दिनों विज्ञापनों का जायका बढ़ा रही है। हांलाकि उत्पादनकर्ता कम्पनियां यह समझाती हैं कि बात जब उत्पाद की विश्वसनीयता पर आती है तो लोग सितारों के भरोसे ही खरीददारी नहीं कर लेते लेकिन पूरी रणनीति के साथ चलने वाली ये कम्पनियां अगर अपने उत्पाद के प्रोमोशन के लिए फिल्मी सितारों पर इतना पैसा बहा रही हैं तो जाहिर है इसकी कोई ठोस वजह जरुर होगी।
कमाल पंच लाइन का
विज्ञापनों में पंचलाइन की भूमिका शुरु से ही अहम रही है। साड़ी पहने हुए एक आदर्श भारतीय नारी जब गृहणियों को फेना ही लेना की सलाह देती थी तो उसका एक अलग ही असर होता था। यह असर कुछ वैसा ही था जैसे हमारे बीच का ही कोई खुशमिजाज हितेषी हमें नेक सलाह दे रहा हो। धीरे धीरे पंचलाइन समय के साथ टेंडी होने लगी। ठंडे का मतलब कोकाकोला बताया जाने लगा। इच्छा भले हो या ना हो पर दिमाग में दिल मांगे मोर छाने लगा। इतने से ही काम ना चला तो कोल्डड्रिंक को मर्दानगी और सेन्सेशन से जोड़कर टेस्ट द थन्डर का रुप दे दिया गया। लेकिन पंचलाइन को अभी और फक्कड़ होना था। आपकी और हमारी रोजमर्रा की भाषा के और करीब आना था। ऐसे में दिमाग की बत्ती जला देने का सिलसिला शुरू हुआ। विज्ञापनों में कभी जोर का झटका धीरे से लगने लगा तो कभी यारा दा टशन, तो कभी दो रूपए के दो लड्डू भाषा का हिस्सा बन गया। चन्द शब्दों की इस बाजीगरी से दर्शक एक बार सोचने को मजबूर जरुर हुए कि क्या इसी तरह का कोई आइडिया उनकी जिन्दगी को बदल सकता है।
Thursday, January 20
'सलमान' ने करवाया 'अमिताभ'को आईफा से बेदखल!
फिल्मी गलियारों में अफवाओं का बाजारा गर्म है, लेकिन फिल्मी पंडितों ने इसके पीछे बॉलीवुड के दंबग सलमान खान को कारण बताया है। खबर ये आ रही है कि पिछली बार अमिताभ इस अवार्ड फंक्शन के ब्रांड एंबेसडर होने के बावजूद भी श्रीलंका नहीं गये थे, वो भी बिना कोई वाजिब कारण बताये। ये बात अलग है कि उस समय उनके सुपुत्र और बहुरानी की फिल्म रावण को प्रदर्शित होना था जिसके चलते वो वहां नहीं गए थे।
लेकिन अमिताभ ने आईफा को कोई सूचना नहीं दी, आईफा ने उनकी जगह सलमान को मौका दे दिया, सलमान ने स्टेज और मंच दोनों को ही बखूबी संभाल लिया, और तो और बॉलीवुड के इस प्लेबॉय ने सबका दिल भी जीत लिया। कहा ये भी जा रहा है सलमान से होस्टिंग कराये जाने की वजह से अमिताभ काफी क्रोधित थे।
सूत्रों की मानें तो बिग बी आईफा के इस फैसले से बेहद दुखी थे कि उनकी सलाह लिए बिना ही आयोजकों ने न सिर्फ श्रीलंका में समारोह आयोजित कराने का फैसला किया बल्कि सलमान खान को बतौर होस्ट भी साइन कर लिया। आईफा के इस फैसले के बाद ही अमिताभ ने नाता तोड़ने का मन बना लिया। इन बातों से तो यही लग रहा है कि बॉलीवुड के दंबग से डर गया शहंशाह।
'फिदा' के जाने पर ये स्यापा क्यों?
मकबूल कतर जा रहे हैं। अब वहीं बसेंगे और वहीं से अपनी कूचियां चलाएंगे.. ये खबर सुनकर हिंदुस्तान में कुछ लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा है। इस गम में वो आधे हुए जा रहे हैं कि कुछ अराजक तत्त्वों के चलते एक अच्छे कलाकार को हिंदुस्तान छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पूरे ड्रामे को देखकर उन तथाकथित सहिष्णु लोगों पर हंसी, हैरानी और गुस्सा आता है।
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95 साल का एक बूढ़ा जो अब तक आम लोगों की भावनाओं को अपनी कला के जरिये ठेंगे पर दिखाने की कोशिश करता आया है, जब वो खुद अपनी मर्जी से, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहा है तो फिर ऐसे लोगों का कलेजा भला क्यों फट रहा है..? क्यों.. क्योंकि उनके पास आधी-अधूरी जानकारी है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वो इस पूरे ड्रामे को अपनी सहिष्णुता का झूठा चश्मा उतारकर ईमानदारी से देखें।
मकबूल कतर में बस रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें शाही परिवार का चारण बनकर शाही परिवार के लिए पेंटिंग बनाने का काम मिल गया है और जाहिर तौर पर जिंदगी को विलासिता से जीने के लिए वो शाही परिवार इस कलाकार को बेशुमार पैसा दे रहा है। पैसा इस करोड़पति कलाकार की पुरानी कमजोरी रही है। ये तस्वीरें सिर्फ अमीरों के ड्राइंग रूम के लिए बनाते हैं। इनकी करोड़ों की पेंटिंग्स खरीदने वाले धनपशुओं के लिए समाज का मतलब उनकी पेज थ्री सोसायटी होती है और खाली वक्त में टीवी चैनलों पर बैठकर किसी को भी धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध होने का सर्टिफिकेट बांटना उनका शौक होता है। सवाल ये है कि हुसैन ने कुछेक 'पेंटिंग' बनाने के अलावा इस देश के लिए क्या कुछ सार्थक किया है? क्या उन्होंने गरीब.. अनाथ बच्चों के लिए कोई एनजीओ खोला या क्या उन्होंने पेंटिंग के जरिये कमाई अपनी करोड़ों-अरबों की दौलत का एक छोटा सा हिस्सा भी इस देश के सैनिकों के लिए समर्पित किया? मकबूल ने जो कुछ भी किया सिर्फ अपने लिए किया।
तर्क देने वाले तर्क देते हैं कि एक कलाकार को कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपनी इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल बार-बार दूसरों की सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए करें? कहते हैं अश्लील पेंटिंग्स का विरोध हुआ तो मकबूल व्यथित हो गए। सरकार ने सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन मकबूल को भरोसा नहीं हुआ। दरअसल मकबूल को समझ में आ गया था कि सरकार पर भरोसा न करने से पब्लिसिटी कुछ ज्यादा ही मिल रही है। लोगों के बीच इमेज एक ऐसे 'निरीह प्रतिभावान' कलाकार की बन रही है, जो अतिवादियों का सताया हुआ है। ये तो वाकई कमाल है। दूसरों की भावनाएं आपके लिए कुत्सित कमाई का सामान हैं। उस पर अगर विरोध हो तो आप बौद्धिक बनकर उनके विरोध पर भी ऐतराज जताने लगें।
अगर आपका दिल इतना ही बड़ा था तो आप एक माफी का छोटा सा बयान जारी कर खुद के एक दरियादिल कलाकार होने का परिचय दे सकते थे? मामले को शांत कर सकते थे। लेकिन आपके लिए न तो हिंदुस्तान के भावुक लोग कोई अहमियत रखते हैं और न ही हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था का आपके लिए कोई मतलब है। अश्लील पेंटिंग का मामला कोर्ट में गया तो इस 'कलाकार' ने एक बार भी कोर्ट में हाजिर होना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने इसे अवमानना के तौर पर लिया और फिर मकबूल के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया, फिर भी मकबूल को अक्ल नहीं आई। आती भी कैसे? अक्ल न आने की कीमत पर ही तो इतनी सारी पब्लिसिटी और करोड़पतियों के ड्राइंग रूम में पेंटिंग रखे जाने का कीमती तोहफा मिल रहा था। कतर में बसने की खबर भी मकबूल ने ऐसे फैलाई है, जैसे वो इसके जरिये हिंदुस्तान के मुंह पर तमाचा रसीद करने की खवाहिश पूरी कर रहे हों।
दुबई में डेरा डाले हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक को खुद अपनी तस्वीरें भेजी और कतर की नागरिकता मिलने की खबर दी। एक अखबार को खबर देने का मतलब ये था कि ये खबर पूरे देश में फैले। सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद मकबूल के दिल में इस मुल्क में बसने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर ये ख्वाहिश होती तो फिर इस देश में लौट आने के कई बहाने मकबूल के पास होने चाहिए थे। अगर बात विरोध की ही थी तो जितना विरोध 'माई नेम इज खान' का हुआ, उतना मकबूल का तो कतई नहीं हुआ था। 'खान' बढ़िया तरीके से रिलीज भी हुई और शाहरूख आज भी अपने मन्नत में उसी शान के साथ रह रहे हैं, जैसे पहले रहते थे।
दरअसल मकबूल में खुद को सताया हुआ कलाकार दिखाने का शौक कुछ ज्यादा ही था। इसके साथ ही मकबूल का 'कला' बाजार दुबई और कतर जैसे अरब मुल्कों में खूब बढ़िया चलने भी लगा था। तेल भंडारों से बेशुमार पैसा निकाल रहे शेखों के पास अपने हरम पर खर्च करने के अलावा मकबूल की पेंटिंग खरीदने के लिए भी खूब पैसा है। मकबूल को और चाहिए भी क्या? सवाल ये है कि कतर में मकबूल को अपना बाजार दिख रहा है या फिर मकबूल को वाकई कतर में किसी कमाल की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता की आस है? अगर ऐसा है तो फिर मां सरस्वती की तरह ही कतर में मकबूल बस एक बार अपने 'परवरदिगार' की एक 'पेंटिंग' बना दें.. फिर देखते हैं, जिस कतर ने आशियाना दिया है वो कतर मकबूल को एक नया आशियाना ढूंढने का वक्त भी देता है या नहीं।
DEEPIKA
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अलग –अलग विधा हैं साहित्य और सिनेमा
मशहूर फिल्मकार के. बिक्रम सिंह का कहना है कि साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर चर्चा के वक्त हिंदी में विवाद की असल वजह है कि दरअसल हिंदी में विजुअल आधारित सोच का विकास नहीं हुआ है, बल्कि सोच में शाब्दिकता का जोर ज्यादा है। उनका कहना है कि सिनेमा में कला, संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, कला निर्देशन जैसी कई विधाओं का संगम होता है। ऐसे में साहित्य को पूरी तरह से सेल्युलायड पर उतारना संभव नहीं होता। उन्होंने सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस उपन्यास में जहां करीब पांच सौ चरित्र हैं, वहीं फिल्म में महज दस-बारह। उन्होंने श्रीलंका के मशहूर उपन्यासकार लेक्सटर जेंस पेरी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके उपन्यास टेकावा पर जब फिल्म बनी और उनसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो पैरी ने कहा था कि उपन्यास उनका है, जबकि फिल्म निर्देशक की है। उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर के हवाले से कहा कि सिनेमा कला के तौर पर तभी स्थापित हो सकेगा, जब वह साहित्य से छुटकारा पा लेगा। हालांकि मशहूर फिल्म समीक्षक और कवि विनोद भारद्वाज ने रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी चारूलता का उदाहरण देते हुए कहा कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिस पर सत्यजीत रे ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। भारद्वाज ने शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर बनी विमल राय की फिल्म देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक ही कृति पर अलग-अलग ढंग से सोचते हुए अच्छी फिल्में जरूर बनाई जा सकती हैं। उनका सुझाव है कि साहित्यकारों को यह सोचना चाहिए कि महान साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के वक्त छेड़छाड़ उस कृति की महानता से छेड़छाड़ नहीं है। साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों की रिलीज के बाद साहित्य और सिनेमा के रिश्तों में आने वाली तल्खी का ध्यान फ्रेंच फिल्मकार गोदार को भी था। यही वजह है कि वे अच्छी और महान कृति पर फिल्म बनाने का विरोध करते थे। वैसे सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारिशरण नया नजरिया देते हैं। उनका कहना है कि चूंकि साहित्य का जोर कहने और सिनेमा का जोर देखने पर होता है, लिहाजा भारत में दोनों विधाओं के रिश्तों में खींचतान दिखती रही है। उनका मानना है कि चूंकि यूरोप में कहने और देखने का अनुशासन विकसित हो चुका है, लिहाजा वहां साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर वैसे सवाल नहीं उठते, जैसे भारत में उठते हैं। शरण के मुताबिक यही वजह है कि भारत में प्रबुद्ध सिनेकार महत्वपूर्ण रचनाओं को छूना तक नहीं चाहते। उनका सुझाव है कि सिनेमा और साहित्य असल में दो तरह की दो अलग विधाएं हैं, लिहाजा उनके बीच तुलना होनी ही नहीं चाहिए।
फ़िल्मी पर्दे से ओझल होता भारतीय किसान
हाल ही में किसानों पर आधारित दो फ़िल्में रिलीज हुईं `गोष्ट छोटी डोंगराएवढ़ी' और `किसान'। दिवंगत अभिनेता नीलू फुले की आखिरी फ़िल्म मानी जानेवाली मराठी फ़िल्म `गोष्ट छोटी डोंगरावढ़ी' को लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिला, लेकिन उसकी वजह फ़िल्म का विषय और नीलू के अलावा इस फ़िल्म का `मराठी' भाषा में होना रहा। लेकिन विदर्भ के किसानों की आत्महत्या का यह मार्मिक चित्रण सिऱ्फ मराठीभाषी क्षेत्रों से ही दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित कर सका। वहीं सोहेल खान निर्देशित `किसान' नरम पटाखे की तरह बॉक्स ऑफिस पर धमाका करने में असफल रही। इसकी एक बड़ी वजह इस फ़िल्म की कमजोर पटकथा को माना जा रहा है। प्रयोगात्मक सिनेमा के लिए मशहूर मधुर भंडारकर के मुताबिक ऐसी फ़िल्मों के सफलता के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि उनकी कहानी को दर्शकों की पसंद के अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया जाये। पर्दे पर सिऱ्फ गांव के दृश्य दिखाकर किसी कमजोर और देखी-दिखायी कहानीवाली फ़िल्म को भला कैसे बेचा जा सकता है।हिंदी फ़िल्मों में किसानों की बात उठे तो दिमाग में एक ही नाम आता है- मनोज कुमार। हममें से अधिकांश बचपन से मनोज कुमार की फ़िल्मों में गांव को देखकर बड़े हुए और उनकी वो फ़िल्में आज भी देखी जाती हैं, नि:संदेह इसकी वजह मनोज कुमार की दूरदर्शिता और सामायिक मुद्दों की पहचान में उनका सक्षम दिमाग ही माना जा सकता है। आजादी के बाद गांवों के विकास के ज़रिये देश का विकास करने की योजनाएं बन रही थीं। मनोज कुमार ने उसी दौर में गांवों की बदलती परिस्थितियों, किसानों की जरूरतों और भारतीय परिवारों में आपसी मेलजोल बनाये रखने में आ रही मुश्किलों को कथावस्तु बना अपनी फिल्मों में गांवों के तत्कालीन चेहरे को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। उससे पहले किसानों पर आधारित `दो बीघा जमीन' और `मदर इंडिया' जैसी सफल फ़िल्में भी बन चुकी थीं। अच्छी कहानी के साथ उनकी भी लोकप्रियता की वजह उनका सामायिक होना ही था।
परिवर्तन समय का नियम है और उसी समय ने भारतीय सिनेमा जगत की परंपराओं को भी बदल दिया। १९७० के दशक में `शोले' जैसी फ़िल्मों में गांवों का चित्रण तो हुआ, लेकिन खेती-किसानी पर्दे पर नहीं दिखी। इस फ़िल्म के बाद गांवों की पृष्ठभूमि में ऐसी कई फ़िल्में बनीं, लेकिन पारिवारिक ड्रामे, डकैती, मार-धाड़ और नाच-गाने के अलावा इन फ़िल्मों में और कुछ नहीं दिखा। `दुश्मन', `मेला' `गौतम गोविंदा', `धरती कहे पुकार के' जैसी फ़िल्मों का कमर्शियल मसालों से भरपूर होने के बावजूद इनमें कभी-कभार भारतीय किसान और उसकी जिंदगी के दर्शन होते रहे, लेकिन उसके बाद हिंदी फ़िल्मों से किसान गायब होते रहे और धीरे-धीरे बॉलीवुड उन्हें भूलता सा गया। आज भारत की पहचान आइटी हब के रूप में बन रही है, लेकिन दुनियाभर की चीजों को बेचने का महत्वपूर्ण बाजार बन चुके भारत का एक रूप उसके गांवों में बसता है, जहां किसी आलीशान टॉवर, हॉट डॉग, ब्लैकबेरी या ब्रांडेड कपड़ों की मांग नहीं है। उन गांवों का निवासी वहां का किसान अपने खेतों में अनाज उगाने के लिए पहले उन खेतों को गिरवी रखता है और फिर कर्ज न चुका सकने की स्थिति में अपनी जीवनलीला अपने ही हाथों खत्म कर देता है, लेकिन शहरी चकाचौंध को कैमरे में कैद करनेवालों की तरफ यह मजबूर किसान मदद की आस भरी नज़रों से नहीं देख सकता क्योंकि उन्हें उसका दर्द दिखायी नहीं पड़ता। उन्हें टैक्टर, ट्यूबवेल, आमों का पेड़ या तालाब के किनारे पानी पीते गाय-बछड़ों या कच्चे मकानों की खूबसूरती आकर्षित नहीं करती।
यह सच है कि हिंदी फ़िल्मों का दर्शक परदे पर अपना गांव और खेल-खलिहान देखना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ समय के साथ उसकी पसंद भी बदल गयी है और इसका प्रमाण `समर २००७' और `किसान' का बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरने से मिलता है। फ़िल्मों में पुराने माने जा रहे विषय पर बनी इन फ़िल्मों को नये ढांचे में ढालना ज़रूरी है। इसलिए यहां इस विषय के साथ प्रयोग करने की जरूरत महसूस होती है। इन फ़िल्मों की कथावस्तु मजबूत बनाने के साथ इनमें सहजता से पात्रों और परिस्थितियों को मौजूदा समय के हिसाब से अगर प्रस्तुत किया जाये तो दर्शक भी इन फ़िल्मों को देखने में रुचि लेंगे और शायद किसी तरह भारतीय किसान बॉलीवुड में अपनी वापसी कर सकेगा।
हालाँकि अनुष्का रिज़वी द्वारा निर्देशित पीपली लाइव एक हद तक बॉक्स ऑफिस पर हिट रही, अब दर्शको को इंतजार है किरण राव द्वारा निर्देशित फिल्म '' धोबी घाट '' का. इस फिल्म से कई उमीदे है देखते है यह फिल्म दर्शको पर अपना रंग चढाने में सफल होती है या नहीं ...........
दीपिका
Wednesday, January 19
यादगार फ़िल्में
Tuesday, January 18
सपने हज़ार
इन नन्ही नन्ही आँखों ने सपने हज़ार देखे हैं,
डर है कहीं कोई सपना अखियों से बाहर न छलक जाये...
डर है कहीं ज़माने को पता न चल जाये
डर है कहीं ये मुझसे दूर न हो जाये
ज़माने की कटुता ये सह न पाएंगे
इतने कोमल हैं कि दर्द सह न पाएंगे
डर है कहीं इनमे खरोच न आ जाये
डर है कहीं लहू लोहान न हो जाये
इतने प्यार और विश्वास के साथ इन्हें संजोया
जैसे माला में मोती पिरोया है
जिस दिन सपनो की ये माला टूटी
समझ लेना मैं जिंदगी से रूठी
किसी के स्पर्श से ये कहीं छू मंतर न हो जाये
इसलिए इन्हें आँखों में पनाह दी है
ये सोच कर कि मेरी अर्थी के साथ
ये भी मिट्टी में मिल जायेंगे
तब भी राख़ के साथ ये उड़ते जायेगे
इस खुवाइश के साथ .....
शायद अब भी पूरे हो जायेगे.....
Sunday, January 16
दस रुपये का चार सिनेमा
Saturday, January 15
ताजमहल सिर्फ अमीरों के लिए!
ब्रिटेन की प्रतिष्ठित फ्यूचर लेबोरेटरी के एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि भारत में ताजमहल, मिस्र के पिरामिड और वेनिस को धनी वर्ग के लिए खेल का विशेष मैदान बना दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें संरक्षित किया जा सके।
उसने चेतावनी दी कि इन विश्व विरासत स्थलों को बचाने के लिए यदि यह कार्रवाई नहीं की गई तो पर्यटन के भारी दबाव के कारण हम अगले 20 वर्षों में इसे खो देंगे।
‘डेली एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक ये विश्व विरासतें केवल धनी लोगों के लिए सीमित की जानी चाहिए और आम पर्यटकों के देखने के लिए अलग से एक प्लेटफार्म बनाया जाना चाहिए।
भविष्यवेत्ता लॉन पियर्सन ने कहा कि भविष्य में हम जहाँ चाहते हैं वहाँ नहीं जा सकेंगे। आने वाले समय में पर्यटन की सुविधाएँ कुछ स्थलों पर होंगी और केवल धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति ही इन पर्यटन स्थलों का टिकट खरीद पाएँगे। (भाषा)
आस्था से जुड़ी मकर संक्रांति
भारतीय त्योहार सदैव एकजुटता व परस्पर प्रेम के द्योतक हैं। मकर संक्रांति पर्व भी ऐसे ही स्नेह व श्रद्धा से हर प्रांत व जाति द्वारा मनाए जाने वाला त्योहार है। यह ऊर्जा के स्रोत सूर्य की आराधना के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य की दक्षिणायन से उत्तरायन की ओर गति प्रारंभ होती है, जिससे मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ रातें छोटी व दिन तिल के आकार में बढ़ने लगते हैं। यह सृष्टि के अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है।
विभिन्ना प्रांतों में यह त्योहार थोड़े भिन्न अंदाज व नामों से मनाया जाता है, लेकिन सबका मूल एक-सा ही है। तमिलनाडु में पोंगल, महाराष्ट्र में तिल संक्रांति, पंजाब में लोहड़ी, गुजरात में उत्तरायन, असम में माघ-बिहू और राजस्थान में तो यह पतंग उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पतंग उत्सव में देश से ही नहीं वरन विदेशी भी दूर-दूर से आकर प्रतियोगिता में भाग लेते हैं।
कई स्थानों पर इस दिन लोग मिल-जुलकर गिल्ली-डंडा व पतंगबाजी जैसे आयोजन करते हैं। रंग-बिरंगी पतंगें आसमान की ऊँचाई नापने के साथ, हवा में उड़ती, गोते लगातीं मानो सपनों को छू लेती हैं। जितना आनंद पतंग उड़ाने का उतना ही उसे काटने, पेंच लड़ाने व लूटने में आता है। एक तरह से यह त्योहार ऊँचाइयों को छूने का, गिले-शिकवे दूर कर एक हो जाने का भी है।
आनंद व उल्लास के साथ मकर संक्रांति के दिन जप, तप, दान, स्नान आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। कहते हैं इस समय किया गया दान सौ गुना बढ़कर प्राप्त होता है। महिलाएँ इस दिन सौभाग्य-सूचक वस्तुएँ, तिल-गुड़, रोली और हल्दी बाँटती हैं। पवित्र नदी में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर सूर्य को अर्ध्य देना, गाय को चारा खिलाने व खिचड़ी तथा तिल-गुड़ का दान शास्त्रों के अनुसार विशेष फलदायी होता है।
मकर संक्रांति के दिन तिल से बने व्यंजनों का सेवन सेहत के लिए भी बहुत उपयोगी होता है। तिल का गुड़ के साथ सेवन करने से इसकी पौष्टिकता बढ़ जाती है। साल की शुरुआत में तिल का सेवन पूरे साल निरोगी रखता है। आइए, प्रार्थना करें कि यह मधुर पर्व सबके जीवन में नई उमंग व उम्मीदों का सवेरा लाए। उत्तरायन का सूर्य अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए नई संभावनाओं के साथ।
Thursday, January 13
लोकतंत्र के चौथे खम्बे को बचाओ
Wednesday, January 12
फिल्में भडकाती हैं बच्चों में आक्रोश
फिल्में लोगों के मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं लेकिन दुख की बात यह है कि फिल्में अपने इस उद्देश्य को पूरा कर पाने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। आजकल फिल्मों में बहुत अधिक हिंसा दिखाई जाती है, इस वजह से दर्शकों की रुचि भी विकृत हो चुकी है। खास तौर से बच्चे फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। उनके अवचेतन मन में हीरो की परदे पर दिखने वाली छवि ही अंकित होती है। वे उन्हीं की तरह बनना चाहते हैं। फिल्में बच्चों के मन में दबे आक्रोश को और अधिक भडकाने का काम करती हैं। बच्चों का यह आक्रोश जब बाहर फूटता है तो कभी-कभी वे अपने दोस्तों के साथ आक्रामक और हिंसक व्यवहार कर बैठते हैं। बच्चों के व्यक्तित्व और चरित्र के निर्माण में फिल्में निश्चित रूप से अपना गहरा प्रभाव डालती हैं। टीनएजर और युवा वर्ग पर भी फिल्मों का नकारात्मक प्रभाव पडता है। टीनएजर फिल्मों में दिखाई जाने वाली हर बात को सही मान लेते हैं और उसी का अनुसरण करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा और अपराध के लिए कहीं न कहीं फिल्में जिम्मेदार हैं। फिल्म उद्योग से जुडे लोग अकसर यह तर्क देते हैं कि फिल्में देखकर लोग हिंसा नहीं करते बल्कि समाज में जो होता है हम उसी की सच्चाई बयान करते हैं। लेकिन उनका यह तर्क बिलकुल गलत है। ऐसा नहीं है कि समाज में केवल